हनुमानजी ने अशोक वाटिका से रावण को क्या संदेश दिया था?

माता सीता जी श्रीहनुमान जी को जब यह कहती हैं, कि हे पुत्र! तुम जो यह अशोक वाटिका के सुंदर फल खाने की हठ कर रहे हो, उसे पूर्ण करने में तुम्हें भयँकर बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है। कारण कि इस वन की रखवाली अतिअंत दुष्ट राक्षस जन करते हैं। तो ऐसे में तुम क्या करोगे। तो श्रीहनुमान जी कहते हैं, कि हे माता! निश्चित ही यह राक्षस अतिअंत दुष्ट व खूँखार होंगे। किन्तु अगर आपकी आज्ञा हो जाये, तो इनका तो मुझे तनिक भी भय नहीं-

‘तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं।

जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं।।’

जैसा कि हमने विगत अंक में भी कहा था, कि अशोक वाटिका को श्री जानकी जी ने, कोई सुंदर वाटिका न कहकर, उसे वन की संज्ञा दी थी। और वन तो एक ऐसा स्थान होता है, जहाँ मात्र मीठे फल ही नहीं होते, अपितु कड़वे फल भी होते हैं। माता सीता जी के कथनों का अगर हम तात्विक चिंतन करें, तो पायेंगे कि वास्तव में, यह संसार सागर ही वन है। और जीव इसी में विचरण व भोग करने के लिए विवश है। निश्चित ही जीव को इसमें सुख रुपी मीठे फल भी मिलेंगे और कड़वे फलों का सेवन भी उसे करना पड़ेगा। लेकिन जीव के साथ समस्या यह है, कि जिंदगी भर वह इसी उलाहने व दोष में व्यतीत कर देता है, कि प्रभु ने तो उसे मात्र कड़वे ही फल प्रदान किये हैं। सुख प्रदायक फल तो उसने किसी अन्य के ही भाग्य में लिख डाले। ऐसे में सुख की खोज में वह मात्र, दुखों का ही संग्रह करता है। क्या जीव का जन्म यूँ ही दुखों व कष्टों की चक्की में पिसनें के लिए हुआ है? क्या उसके अश्रुओं को आनंद के पलों में बदलने वाला, कोई सूत्र निर्मित नहीं हुआ है? ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना की दुर्गति का अंत, आखिर कब और कैसे होना संभव हो सकता है। तो इसका समाधान भी, माता सीता जी अपने अगले वाक्यों में देती हैं-

‘देखि बुद्धि बल निपुन कपि जानकीं जाहु।

रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु।।’

माता सीता जी पवनसुत हुनमानजी को संबोधित करती हुई कहती हैं, कि हे हनुमंत लाल! मैंने देख लिया है, कि तुम बुद्धि व बल में निपुण हो। तुम्हें भलि भाँति ज्ञान है, कि कहाँ, किससे क्या व्यवहार करना है। इसलिए जाओ, और वन में मीठे फलों का सेवन करो। किन्तु बस एक ही सावधानी है, कि तुम जो भी फल का सेवन करो, उसे सेवन करते समय, अपने हृदय में श्रीरघुपति जी का स्मरण सदैव करते रहना। कारण कि अगर श्रीराम जी को अगर हृदय में धारण किया हुआ होगा, तो सर्वप्रथम तो प्रभु श्रीराम तुम्हें कड़वे फलों का सेवन करने ही नहीं देंगे। और अगर विधिवश सेवन करना भी पड़ गया। तो प्रभु का प्रताप है ही ऐसा, कि आपको वह कड़वा फल, कड़वा न लगकर, स्वतः ही मीठा भासित होने लगेगा। बस यही आनंदमय जीवन का सबसे बड़ा सूत्र है। जब यह निश्चित ही है, कि इस माया से सने संसार में विचरण करना ही पड़ेगा, कोई अन्य चारा ही नहीं। तो क्यों न श्रीजानकी जी द्वारा प्रदित सूत्र को ही अंगीकार किया जाये। जीवन के प्रत्येक क्रिया कलाप को करने से पूर्व, क्यों न हम सबसे पहले श्रीरघुपति जी को अपने हृदय में धारण करें। और इस अवसर के सदैव साक्षी रहें, कि प्रभु हमें कड़वे फलों से दूर ही रखें। और अगर कड़वे फलों को सेवन करने की विवशता आन ही पड़े, तो हमें, वे फल भी मीठे ही भासित हों। श्रीहनुमान जी ने ऐसा ही किया। उन्होंने सर्वप्रथम तो माता सीता जी को प्रणाम किया, और सीधे बाग में घुस गये। निश्चित ही श्रीहनुमान जी अपने मनभावन फलों का सेवन कर रहे हैं। लेकिन श्रीहनुमान जी की एक लीला समझ में आ रही थी। वह यह कि श्रीहनुमान जी फल तो खा ही रहे थे, साथ-साथ व वृक्षों को भी ध्वंस कर रहे थे-

‘चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा।

फल खाएसि तरु तोरैं लागा।

रहे तहाँ बहु भट रखवारे।

कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे।।’

जिन पेड़ों ने श्रीहनुमान जी को मीठे फल दिये, वे उन्हें ही उखाड़ फेंक रहे हैं। जो रखवाले हैं, वे उन्हें भी मार रहे हैं। जिनमें कुछ रखवालों ने जाकर रावण से शिकायत की। श्रीहनुमान जी मानों कहना चाह रहे हैं, कि हे रावण! पहली बात तो तेरी बगिया के फल मीठे हो ही नहीं सकते। होंगे भी कैसे। क्योंकि जिन वृक्षों को तूने पानी के स्थान पर, अबला जनों के रक्त से सींचा हो। भला वे वृक्ष मीठे फल दे ही कैसे सकते हैं। यह तो मेरे प्रभु का प्रताप है, कि उनका स्मरण करके मैं, जो भी फल को छूता हुँ, वह मीठा हो जाता है। लेकिन आवश्यक नहीं कि, मेरे जाने के पश्चात, यहाँ किसी प्रभु भक्त का आगमन होगा भी अथवा नहीं। ऐसी परिस्थिति में तो अशोक वाटिका के समस्त फल अब विषाक्त ही रह जायेंगे। जिनका सेवन करने से किसी को भी कष्ट ही होगा। तो क्यों न इस समस्या को समूल से ही नष्ट कर दिया जाये। तो मैं इन पेड़ों को जड़ से उखाड़ देता हूँ। दूसरा बात हे रावण, मैं तुमको यह संदेश भी देना चाहता हूँ, कि हे मायावी जीव! तूं ऐसी सुंदर बगिया के निर्माण में अपनी समस्त कला व ज्ञान को लगा देता है। सबसे अमूल्य अपनी श्वाँसो की भी बलि दे देता है। लेकिन तेरे हाथ क्या आता है। क्या इस कृत्य से तेरे जीवन में धर्म के दैविक गुणों की सुंदरता आई? मुझे पता है, इसका उत्तर ‘न’ में ही है। दैविक गुण तो नहीं आये, लेकिन हाँ, विषय विकारों के कीचड़ से तूं अवश्य ही मलिन हो गया है। इसकी रखवाली के भी तूने विवेष प्रबंध किये हैं। लेकिन समय का चक्र तो देख रावण। मात्र एक वानर की एक छलाँग ने ही, तेरी अशोक वाटिका की सुंदरता को, कुरूपता में परिवर्तित कर दिया है। तनिक तू सोच कर तो देख, अभी तो मात्र एक ही वानर आया है, जबकि प्रभु तो वानरों की पूरी सेना ही लेकर पधारने वाले हैं। तब तुम्हारी सुंदर लंका का क्या होगा, क्या यह तूने सोचा है? पगले श्रीसीता जी को बँदी बनाकर तूने अपने विनाश की गाथा स्वयं अपने हाथों से लिख ली है। कहाँ तो श्रीजानकी जी के समक्ष तूने स्वयं को बँदी बनाना था, कहाँ तूने माता सीताजी को ही बँदी बना डाला। अब तो बस तुझे मिलने की इच्छा है। और मुझे यह भी पता है, कि तूं मेरे जैसे वानर से मिलने में अपना अपमान समझेगा। मुझे अपनी सभा में घुसने तक नहीं देगा। जबकि मैं चाहता हूँ, कि तू प्रभु श्रीराम जी के दूत, अर्थात मुझे, स्वयं किसी को भेज कर अपनी सभा में लेकर जाये। और वह इच्छा तूं ऐसे ही आसानी से तो प्रगट करेगा नहीं। तो मैंने स्वयं ही तुमसे मिलने का मार्ग निकाल लिया है। ले जिस अशोक वाटिका की सुंदरता व वैभव पर तुझे इतना अहँकार था, मैं उसकी सुंदरता व अखण्डता को ही बिगाड़ देता हूँ। अशोक वाटिका की सुंदरता से, तेरा अहँकार भी तो जुड़ा हुआ है न। ले मैंने तेरे अहँकार पर ही चोट मार दी। और मुझे पता है, कि अब तूं मुझे अवश्य ही अपनी सभा में लाने का प्रबंध करेगा।

अशोक वाटिका विध्वंस का क्या परिणाम निकलता है। जानेंगे अगले अंक में—(क्रमशः)—जय श्रीराम।।

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