होली पर्व से जुड़ी धार्मिक मान्यताएं और होलिका दहन पूजन विधि

फाल्गुन मास की पूर्णिमा को पड़ने वाला त्योहार होली हर्ष और उल्लास का त्योहार है। इस बार तो इस पर्व को लेकर ज्यादा हर्षोल्लास इसलिए भी देखने को मिल रहा है क्योंकि दो साल बाद कोरोना की स्थिति नियंत्रण में है और लोग पहले की तरह होली मिलन समारोह इत्यादि आयोजित कर रहे हैं। उल्लास से भरपूर इस पर्व पर सामाजिक सद्भाव की मिसाल तब देखने को मिलती है जब सभी वर्गों और धर्मों के लोग एक दूसरे पर रंग लगाकर और गले मिलकर इस त्योहार को मनाते हैं। इस दिन लोग टोलियां बनाकर घर से निकलते हैं और दूसरों के घर जाकर रंग लगाते हैं, मिठाई खाते, खिलाते हैं और एक दूसरे को शुभकामनाएं प्रदान करते हैं। टोलियों की ओर से सांस्कृतिक आयोजन भी किये जाते हैं।

होली पर्व वैसे तो नौ दिनों का त्योहार है लेकिन अधिकांश जगहों पर इसे पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। इसके तहत पहले दिन होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। दूसरे दिन, जिसे धुलेंडी कहा जाता है, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं और ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं। कई जगह महिलाएं इस दिन व्रत भी रखती हैं। होली पर्व के आने की सूचना होलाष्टक से प्राप्त होती है। होलाष्टक को होली पर्व की सूचना लेकर आने वाला एक हरकारा कहा जा सकता है।

होली के इन 9 दिनों का उल्लास और मस्ती ब्रज क्षेत्र में देखते ही बनती है। बरसाने की लठमार होली काफी प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएं उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं। मथुरा और वृंदावन में तो 15 दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है। होली के आगमन को देखते हुए देश के ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ दिनों पहले से ही गोबर के पतले पतले उपले और अंजुलि के आकार की गुलेरियां बनाने का कार्य शुरू हो जाता है। इनके बीच में बनाते समय ही उंगलि से एक छेद बना दिया जाता है। इनके सूख जाने पर इन्हें रस्सियों में पिरोकर मालाएं बनाई जाती हैं। होलिका दहन के दो तीन दिन पूर्व होली के लकड़ी कण्डे आदि रखना शुरू कर दिया जाता है। सामूहिक होलिकाओं के साथ−साथ एक मकान में रहने वाले सभी परिवार भी अतिरिक्त रूप से होलियां जलाते हैं। होली दहन के समय पौधों के रूप में उखाड़े गए चने, जौ और गेहूं के दाने भूनकर बांटने की भी परम्परा है।

होलिका दहन से पूर्व महिलाएं एक पात्र में जल और थाली में रोली, चावल, कलावा, गुलाल और नारियल आदि लेकर होलिका माई की पूजा करती हैं। इन सामग्रियों से होली का पूजन किया जाता है और जल चढ़ाया जाता है। होलिका के चारों ओर परिक्रमा देते हुए सूत लपेटा जाता है। शास्त्रों के अनुसार भद्रा नक्षत्र में होलिका दहन पूर्णतया वर्जित है। यही कारण है कि किसी वर्ष तो होलिका दहन सायं सात आठ बजे ही हो जाता है तो किसी वर्ष प्रातः तीन चार बजे। इस दिन पुरुषों को भी हनुमानजी और भगवान भैरवदेव की विशिष्ट पूजा अवश्य करनी चाहिए। प्रत्येक स्त्री पुरुष को होलिका दहन के समय आग की लपटों के दर्शन करने के बाद ही भोजन करना चाहिए।

होली के दिन घरों में गुजिया, खीर, पूरी और गुलगुले आदि विभिन्न व्यंजन पकाए जाते हैं। बेसन के सेव और दही बड़े भी उत्तर प्रदेश में इस दिन खूब बनाये जाते हैं। इस पर्व पर कांजी, भांग और ठंडाई विशेष पेय होते हैं।

कहा जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिर.यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है। माना जाता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।

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