पौराणिक रूप में बुंदेलखंड से हुई थी सतरंगी पर्व की शुरुआत
– सांस्कृतिक रूप से धनी बुंदेलखंड के पास यह गौरवशाली इतिहास
सनातनी संस्कृति से जुड़ा बेहद महत्वपूर्ण, रंगों से सराबोर कर देने वाला त्योहार है “ होली ” । इस सतरंगी पर्व की शुरुआत पौराणिक रूप से बुंदेलखंड की पावन धरती से हुई थी। सांस्कृतिक रूप से बेहद धनी बुंदेलखंड के गौरवशाली इतिहास में रंगीली होली के उद्गम स्थल होने का गौरव भी शामिल है। होली का उद्गम स्थल ऐतिहासिक और पौराणिक रूप से बुंदेलखंड की ह्रदयस्थली झांसी जिला मुख्यालय से 80 किलोमीटर दूर बामौर विकासखंड में स्थित “ एरच धाम” को माना जाता है। पौराणिक काल मे इस क्षेत्र से वर्तमान जालौन और हमीरपुर जिलों की सीमा भी लगती थी। होली का त्योहार भक्त प्रहलाद से जुड़ा है और श्रीमद् भागवत पुराण में भक्त प्रहलाद का प्रसंग सुनने पर पता चलता है कि हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप दो राक्षस भाई थे, इनकी राजधानी एरिकेच्छ थी जो अब परिवर्तित होकर एरच हो गया है।
श्रीमद् भागवत पुराण के अनुसार हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रहलाद हुआ, जिसका पालन-पोषण मुनि आश्रम में होने की वजह से यह बालक विष्णु भक्त हुआ। यह बात उसके पिता को बदार्श्त नहीं हुई और उसने अपने पुत्र को तरह-तरह की यातनाएं देकर विष्णु की भक्ति से अलग करना चाहा। राक्षसराज ने अपने पुत्र को मारने के तमाम तरीके अपनाए। हिरणकश्यप ने प्रहलाद को डिकौली या डिकांचल पर्वत से नीचे बेतवा नदी के गहरे पानी में फिकवा दिया था। इतिहासकारों के अनुसार भागवत कथा में जिस डीकांचल या डिकौली पर्वत का जिक्र है वह एरच में बेतवा नहीं के किनारे मौजूद है। यह कोई कल्पना नहीं है, अंग्रेजों ने झांसी के गजेटियर में भी इसका जिक्र किया है। गजेटियर के 339 पेज पर एरच और डिकौली का जिक्र है।
नरसिंह भगवान ने जब हिरणकश्यप का वध कर दिया, तब हजारों राक्षसों ने उत्पात मचाना शुरु कर दिया। नरसिंह भगवान को राक्षसों ने घेर लिया। इस राक्षसी उपद्रव को कीचड़ की होली के रूप में बुंदेलखंड में मनाया जाता है। कुछ दिन पूर्व तक इस होली को लोग नहीं मनाते थे। भक्त प्रहलाद के राज्याभिषेक के बाद राक्षसों का उत्पात थम गया। उसके बाद खुशी में रंगों और फूलों की होली मनाई जाने लगी। बुंदेलखंड के साथ पौराणिक संबंध और होली का उदगमस्थल एरच ही होने के पुरातात्विक प्रमाण भी मौजूद हैं। एरच में मिली होलिका और प्रहलाद समेत भगवान नरसिंह की मूर्तियां इस बात को प्रमाणित करती हैं कि कहीं और नहीं बल्कि भक्त प्रहलाद का जन्म एरच में ही हुआ था।
वीरों की धरती बुंदेलखंड में होली का त्योहार काफी रोमांचक होता है। यहां गांव-गांव में होने वाली लट्ठमार होली पूरे देश में प्रसिद्ध है. जिसमें रंग और गुलाल के बीच लाठी भांजते हुए युवाओं के पैंतरे देखने को मिलते हैं। ऐसा लगता है मानो वो होली खेलने नहीं बल्कि जंग का मैदान जीतने निकले हैं। इसी के साथ पूरे महीने गांव की चौपालों में फाग की महफिले होती है, तो उत्साह में और चार-चांद लगाती हैं। बुंदेलखंड की मशहूर लट्ठमार होली में भगवान श्रीकृष्ण का भेष लेकर युवक ढोलक की थाप पर लाठियों का अचूक वार करते हुए युद्ध कला का बेहतरीन नमूना पेश करते हैं। यह इस इलाके की प्राचीन परंपरा है। बुंदेलखंड के लोग इस होली को अपनी प्राचीन बुंदेली संस्कृति से जोड़ते हैं। बुजुर्ग बताते हैं कि यह परंपरा महाभारत काल से संबंधित है। जब पांडव अज्ञातवास के दौरान विराट की नगरी में रुके थे। उस समय पांडवों ने अपने अस्त्र और शस्त्र छिपाकर रख दिए थे। उस काल में भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवो को लाठी युद्ध कला की शिक्षा दी थी। पांडवों ने जब यह शिक्षा ग्रहण की, होली का त्यौहार था। तभी से यह परंपरा शुरू हुई, जो आज भी बुंदेलखंड के गांवों में दिखाई देती है।
बुंदेलखंड और होली से जुड़ी एक घटना और भी है। होली की बाद आने वाले परेवा के दिन अंग्रेजों ने बुंदेलखंड में कत्लेआम किया था। झांसी क्षेत्र के लोग बताते हैं कि 1858 में अचानक अंग्रेजी फौजों ने झांसी में महारानी लक्ष्मीबाई का किला घेरकर हमला किया था, जिसमें बड़ी संख्या में लोग मारे गए थे। बुन्देलखंड के हमीरपुर, झांसी, ललितपुर, जालौन, बांदा, महोबा और चित्रकूट के अलावा एमपी के तमाम गांवों में भी होली की परेवा में रंग गुलाल नहीं खेला जाता है। हालांकि यहां होलिका दहन के अगले दिन शहर और कस्बों में बच्चे होली के रंग में रंग जाते है। होली की दूज से बुन्देलखंड में होली की धूम मचती है।
बुजुर्ग बताते हैं कि मथुरा में पंद्रह दिनों तक होली खेली जाती है। वहीं कानपुर में आठ और बुन्देलखंड क्षेत्र में रंग पंचमी तक होली खेलने की परम्परा है। आधुनिकता एवं समय की व्यस्तता के चलते अब यह एतिहासिक परम्परा कई जगह कमजोर पड़ने लगी है।
(स्तंभकार – प्रवीण पाण्डेय राष्ट्रीय अध्यक्ष बुंदेलखंड राष्ट्र समिति 9936246736 )