जाति के जंजाल से आखिर क्यों बाहर नहीं निकलना चाहता भारतीय समाज?

बापू की इस भावना का संविधान सभा ने भी ध्यान रखा। लेकिन आजादी के बाद जैसे-जैसे जातीय गोलबंदी की राजनीति तेज हुई, बापू के इन शब्दों का प्रभाव कम होने लगा। हर जाति अपने-अपने खांचे में और मजबूत होने का राजनीतिक ख्वाब देखने लगी।

यह संयोग ही है कि जब देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, तभी जातीय जनगणना के नाम पर जातिवादी राजनीति तेज हो गई है। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ये जाति आखिर क्यों नहीं जाती? इसको लेकर हमारे स्वाधीनता सेनानी क्या सोचते थे। स्वाधीन भारत की पहली जनगणना 1951 में हुई। इससे पहले देश के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 1950 में स्पष्ट कहा था कि जातियों की गिनती नहीं होने जा रही है और भविष्य में कभी जातिगत जनगणना नहीं होगी। उनके बाद एचएम पटेल, वाईबी चव्हाण और ज्ञानी जैल सिंह केंद्रीय गृहमंत्री बने। बिहार के नेता बीपी मंडल ने इन तीनों गृह मंत्रियों को जातियों की गणना कराने की मांग करते हुए पत्र लिखे थे, पर किसी ने पटेल के निर्णय को पलटना उचित नहीं समझा। इसी संदर्भ में महात्मा गांधी के उस लेख का जिक्र किया जा सकता है, जो ‘यंग इंडिया’ के 1 मई, 1930 के अंक में छपा था। इसमें गांधी जी ने लिखा है, ‘मेरे, हमारे, अपनों के स्वराज में जाति और धर्म के आधार पर भेद का कोई स्थान नहीं हो सकता। स्वराज सबके लिए, सबके कल्याण के लिए होगा।’
बापू की इस भावना का संविधान सभा ने भी ध्यान रखा। लेकिन आजादी के बाद जैसे-जैसे जातीय गोलबंदी की राजनीति तेज हुई, बापू के इन शब्दों का प्रभाव कम होने लगा। हर जाति अपने-अपने खांचे में और मजबूत होने का राजनीतिक ख्वाब देखने लगी। जातीय गोलबंदी की राजनीति को जाति आधारित जनगणना में अपनी राह दिखने लगी। आश्चर्य नहीं कि पिछड़े वर्गों की स्थिति पर 1980 में रिपोर्ट प्रस्तुत करने वाले बीपी मंडल ने भी यह मांग सामने रखी। यह बात और है कि तब के गृहमंत्री ज्ञानी जैल सिंह ने इसे नामंजूर कर दिया था। अंग्रेजों ने 1931 में जो जनगणना कराई, जिसका आधार जाति वैमनस्य फैलाना भी था। आजादी के बाद जब 1951 की जनगणना की तैयारियां हो रही थीं, तब भी जाति जनगणना की मांग उठी। लेकिन तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने इसे खारिज कर दिया। पटेल ने कहा था, ‘जाति जनगणना देश के सामाजिक ताने-बाने को बिगाड़ सकती है।’ इसका समर्थन तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू, डॉ. बीआर आंबेडकर और मौलाना आजाद ने भी किया। इसके पहले संविधान सभा की एक बहस में भी पटेल गांधी जी के विचारों के मुताबिक आगे बढ़ने की मंशा जताते हुए जाति आधारित आरक्षण की मांग को खारिज कर चुके थे। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन सिर्फ राजनीतिक आंदोलन नहीं था। उसमें सामाजिक सुधार के भी मूल्य निहित थे। स्वतंत्रता सेनानियों ने जिस भावी भारत का सपना देखा, उसमें जातिवाद की गुंजाइश नहीं थी। संविधान और कानून के सामने सभी बराबर थे। हालांकि आजादी के बाद विशेषकर समाजवादी धारा की राजनीति जैसे-जैसे आगे बढ़ी, परोक्ष रूप से जातिवादी राजनीति को ही बढ़ावा देती रही। डॉक्टर लोहिया जाति तोडऩे की बात करते थे, लेकिन उनके अनुयायियों ने उनके नारे को सतही तौर पर स्वीकार किया। लोहिया मानते थे कि आर्थिक बराबरी होते ही जाति व्यवस्था खत्म तो होगी ही, सामाजिक बराबरी भी स्थापित हो जाएगी।
जब मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हुईं तो जातीय राजनीति ने इसमें अपने लिए मौका देखा। हर जाति राजनीतिक अधिकार पाने के लिए अपने खोल को मजबूत करने में जुट गई। यह उलटबांसी ही है कि जिस जयप्रकाश आंदोलन से निकली गैर-कांग्रेसी सरकार ने मंडल आयोग गठित किया, उसी आंदोलन के दौरान जयप्रकाश नारायण के गांव सिताबदियारा में 1974 में हुई एक बैठक में जातिवादी व्यवस्था तोड़ने की दिशा में गंभीर प्रयास करने का प्रस्ताव पारित हुआ था। तब जयप्रकाश ने नारा दिया था, ‘जाति छोड़ो, पवित्र धागा तोड़ो, इंसान को इंसान से जोड़ो।’ जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद इन प्रयासों में तेजी आनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। क्योंकि जाति तोड़ने की बात करने वाली राजनीति के अधिकांश अनुयायी जातियों की गोलबंदी में अपना भविष्य देख रहे थे। इसका आभास चंद्रशेखर को था, इसलिए उन्होंने जयप्रकाश से आशंका जताई थी कि आने वाले दिनों में आंदोलनकारी अपनी-अपनी जातियों के नेता के तौर पर पहचाने जाएंगे। जातीय गोलबंदी को और आक्रामक रूप बाबू कांशीराम ने दिया। उनका नारा था, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।’
वर्तमान जातीय जनगणना की जिद्द भी इसी सोच का विस्तार है। इसके लिए तर्क दिया जाता है कि इससे सामाजिक न्याय मिलना संभव होगा। जबकि वास्तविकता यह है कि केंद्रीय सूची में पिछड़ी जातियों की कुल संख्या 2633 है। देश में जाति आधारित जनगणना होती है तो ये जातियां अपने-अपने खोल मजबूत करने में जुट जाएंगी क्योंकि इन सभी जातियों के नेताओं को अधिक से अधिक हिस्सेदारी की उम्मीद होगी। जातिगत लामबंदी के दौरान राष्ट्रीय एकता, सामाजिक समरसता, साम्प्रदायिक सौहार्द आदि आदर्श स्थितिा का क्या होगा इसका अनुमान लगाना अधिक मुश्किल नहीं है। आश्चर्य की बात है कि नीतिश कुमार व लालू प्रसाद यादव जैसे लोहियावादी नेताओं के जातिवादी भोंपू में अब कांग्रेस के भी मिले-जुले स्वर सुनाई देते हैं, ये वही कांग्रेस है जिनके नेता गांधी जी, सरदार पटेल, पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कभी जातिवादी जनगणना को खतरनाक बताया। कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल की जातिवादी राजनीति देश व समाज के लिए घातक ही साबित होगी।
लेखक – राकेश सैन

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